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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 6 
दैत्य गुरू शुक्राचार्य महाराज वृषपर्वा के महल की ओर चल दिये । महाशिवरात्रि का उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है दैत्य नगरी में । एक तो दैत्यों के परम आराध्य हैं महादेव जी । उस पर गुरू शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या देकर महादेव ने दैत्यों को अपना ऋणी बना लिया था । अत: कृतज्ञ दैत्य इस महोत्सव को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं । 

एक बहुत बड़े प्रांगण में एक विशाल सिंहासन बनाया जाता है जिस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने परिवार सहित विराजमान होते हैं । उन्हीं के बगल में गुरू शुक्राचार्य का आसन होता है । महाराज के आसन के ठीक दाहिनी ओर महामंत्री का आसन होता है । सामने भगवान शिव का विग्रह यानि कि शिवलिंग एक ऊंचे आसन पर विराजमान होता है जिसकी पूजा ऋषि मुनिगण और ब्राह्मण मिलकर करते हैं । पूरा वातावरण "ॐ नम: शिवाय" की ध्वनि से गुंजित होता रहता है । 1008 यज्ञवेदियां बनाई जाती हैं जिनमें पूज्य ऋषिगण आहुति देते रहते हैं । महामृत्युंजय मंत्र का अखंड पाठ चलता रहता है और जनता महादेव का अभिषेक करती रहती है । सुंदर वनिताऐं नृत्य करती रहती हैं और गंधर्व गायन करते रहते हैं । पूरा प्रांगण "जय भोलेनाथ" के उच्चारण से पवित्र होता रहता है । 

राजा वृषपर्वा अपनी महारानी और अपनी पुत्री शर्मिष्ठा के साथ महादेव का अभिषेक करने के लिए उपस्थित हुए । दैत्य गुरू शुक्राचार्य ने पूर्ण विधि विधान से उनका अभिषेक करवाया । दूध , दही, घी , शहद और गंगाजल से बारी बारी से शिवलिंग का कराया गया । 

शर्मिष्ठा अभी चार वर्ष की बालिका थी । वह पूर्ण मनोयोग से इस महोत्सव को देख रही थी और बीच बीच में अपनी मां से बाल सुलभ प्रश्न भी कर रही थी । महादेव का अभिषेक "भंग" के बिना कैसे पूरा हो सकता है ? हजारों टन भंग घोंटी गई । बादाम की ठंडाई में भंग मिलाकर सबको पिलाई गई । महाराज वृषपर्वा और महारानी ने जी भरकर भंग मिश्रित ठंडाई का सेवन किया । शर्मिष्ठा अभी छोटी थी इसलिए उसे भंग वाली ठंडाई बस चखाई गई जिससे वह इसका स्वाद याद रखे और हर वर्ष होने वाले इस आयोजन में युवावस्था प्राप्त होने पर मदमस्त होकर भंग वाली ठंडाई का सेवन करे और अपनी भावनाओं का खुलकर प्रदर्शन करे । दैत्य गुरू शुक्राचार्य जी ने भी अपनी क्षमता के अनुरूप ठंडाई का सेवन किया । 

भंग वाली ठंडाई का असर होने लगा । महाराज और महारानी नशे में होकर नृत्य करने लगे । उन्हें देखकर समस्त दरबारी गण और प्रजाजन भी नृत्य करने लगे । वाद्य यंत्र,  ढोलक , नगाड़े तुमुल ध्वनि करने लगे और उसकी तरंग में सब लोग उछल उछल कर नृत्य करने लगे । युवतियां भी मदमस्त होकर थिरकने लगीं थीं । दत्त चित्त होकर नृत्य करने से उनके वस्त्र भी इधर-उधर खिसक गये थे जिससे उनके उभार अनावृत होकर सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे । युवकों की आंखों में नशा पहले ही चढ़ा हुआ था । उभरे हुए अनावृत वक्षस्थल ने इसमें आग में घी का काम किया । युवक युवतियों की नजरें चार हुईं और आंखों ही आंखों में इशारे हो गये । घड़ी भर में जोड़ियां बन गईं और फिर वे लोग युगल नृत्य करने लगे । जोश में आकर जब उनके बदन टकरा जाते थे तब उनके बदन में बिजली का सा झटका लग जाता था । संयम रखना बहुत कठिन हो रहा था । कुछ युगल तो सार्वजनिक रूप से चुंबन और आलिंगन करने लगे थे लेकिन कुछ युगल लाज वश ऐसा नहीं कर पा रहे थे । उस प्रांगण में पास में ही कुछ कक्ष बने हुए थे । युगल उन कक्षों में जाकर प्रेमालाप करने लगे । आज के दिन युवक और युवतियों को स्वच्छंदता पूर्वक आचरण करने की छूट थी । 

कुछ युगल आज ही विवाह के बंधन में बंध जाते थे तो कुछ युगल आज के दिन सगाई कर लेते थे और विवाह बाद में किसी शुभ मुहूर्त में करते थे । स्वच्छंदता इतनी ही थी कि जोड़ी बनने पर विवाह करना आवश्यक था । अनाचार के लिए कोई जगह नहीं थी । 

सामूहिक नृत्य और गायन के पश्चात भोजन का कार्यक्रम था । भांति भांति के भोजन तैयार किये गये थे । सामिष और निरामिष दोनों प्रकार के । इसके लिए बकरे, भैंसे , ऊंट वगैरह अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी और उनका मांस पकाकर खिलाया जाता था । मदिरा का सेवन भी प्रचुर मात्रा में किया जाता था । युवक और युवतियां सभी लोग मदिरा का सेवन करते थे । युवतियां जब मदिरा पान कर नशे में धुत हो जाती थी तब उनके लोचन स्वयं मदिरालय बन जाते थे । युवक इन मदिरालयों में ही छककर मदिरा पान करते थे । युवतियों के ओष्ठ मदिरा पान कर और भी अधिक रसीले हो जाते थे जिससे युवक भौंरे बनकर उन ओष्ठ रूपी गुलाबों पर टूट पड़ते थे । धार्मिक और श्रंगारिक वातावरण युवक युवतियों को उन्मत्त बनाने के लिए पर्याप्त था । जिसमें जितनी शक्ति थी, उतना वह इस सौन्दर्य रूपी महासागर में तैर लेता था अन्यथा थककर डूब जाया करता था । इस प्रकार यह महोत्सव देर रात तक चलता था । लोग थककर वहीं सो जाया करते थे । इस प्रकार महाशिवरात्रि का यह महापर्व असुर राज्य में पूर्ण मनोयोग से मनाया जाता था । 

महाराज वृषपर्वा और महारानी नशे की अधिकता के कारण अत्यधिक उन्मत्त गजराज और गजगामिनी की भांति आचरण कर रहे थे । नन्ही शर्मिष्ठा यह सब देखकर घबरा रही थी । धाय मां उसे संभाले हुए थी । बीच बीच में धाय मां उसे वहां से अन्यत्र स्थान पर ले जाती थी जिससे वह सब कुछ देख नहीं सके । महाराजा और महारानी भी "महारास" में सम्मिलित होकर मगन होकर नृत्य कर रहे थे । यह महोत्सव "मदनोत्सव" की तरह मनाया जाता था । भाव भंगिमा द्वारा अपने हृदय की भाषा कहने का यह सुअवसर था । हर कोई हर किसी से प्रणय निवेदन कर सकता था । स्वीकार करना या न करना सामने वाले की इच्छा पर निर्भर करता था । युवक अपने बलिष्ठ बदन का और युवतियां अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करके एक दूसरे को आकर्षित करने का प्रयास करते थे । 

महोत्सव समाप्त होने पर शुक्राचार्य अपने आश्रम में वापस आ गये । जयंती उनका इंतजार कर रही थी लेकिन देवयानी तब तक सो चुकी थी । शुक्राचार्य भी बहुत थके हुए थे इसलिए वे भी शीघ्र ही निद्रा देवी की गोदी में लीन हो गए । 

क्रमश : 

श्री हरि 
25.4.23 

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